Saturday, June 28, 2008

ऐसा होता तो नहीं

ऐसा होता तो नहीं;और ऐसा हो जाता भी है
बेज़ुबां को छेड़ दे कोई तो वो गाता भी है.


कितनी सदियों,कितने जन्मों से ये दरिया है यहीं
और हर पल ही यही दरिया कहीं जाता भी है.

दर्द जब हद से गुज़र जाए तो बनता है दवा;
हद से ज़्यादा हो दवा तो दर्द बन जाता भी है.

जो गले का हार लगता था कभी,रिश्ता वही
रफ्ता-रफ्ता पाँव की ज़ंजीर बन जाता भी है.

तय करेगा आगे चल कर जो सितारों का सफ़र
वो ही बच्चा गाँव के मेले में खो जाता भी है.

1 comment:

  1. वैसे तो डाक्टर साहिब ये ग़ज़ल किसी के प्रशंसा की मोहताज़ नहीं है फिर भी अपनी टिप्पणी का काला टीका लगा दें इसे :) जैसे जैसे पढ़ते गए, वाह वाह करते गए !! बहुत बहुत बहुत सुन्दर ! सारी बातें एकदम ठीक ! और दरिया वाली बात ने तो जैसे कोई चित्र ही आँख के सामने ला दिया. आपका आभार जो इसे पढने का मौका दिया :)

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