Tuesday, July 15, 2008

कुछ इस अदा से

कुछ इस अदा से उम्र का सावन गुज़र गया
दलदल बचा है , बाढ़ का पानी उतर गया।

सदियाँ उजाड़ने में तो दो पल नहीं लगे;
लम्हे संवारने में ज़माना गुज़र गया।

बुलबुल तो वन को छोड़ के बागों में जा बसी;
इक जंगली गुलाब था , मुरझा के झर गया.

कमरे में आसमान के तारे समा गए ;
अच्छा हुआ के टूट के शीशा बिखर गया।

घर से सुबह तो निकला था अपनी तलाश में,
लौटा जो शाम को तो भला किसके घर गया?

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