Friday, July 18, 2008

दूर का मसला

दूर का मसला घरों तक आ रहा है
बाढ़ का पानी सरों तक आ रहा है।

आग माना दूर है, लेकिन धुआं तो,
इन सुहाने मंज़रों तक आ रहा है।

लद चुके दिन चूड़ियों के,मेंहदियों के;
फावड़ा कोमल करों तक आ रहा है।

मंदिरों से हट के अब मुद्दा बहस का
जीविका के अवसरों तक आ रहा है।

इसने कुछ इतिहास से सीखा नहीं है;
एक प्यासा सागरों तक आ रहा है।

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