Thursday, July 24, 2008

मुर्गा

चावल की किनकी,
बाजरे के दाने,
ठंडा पानी;
और चारो तरफ
दड़बे की जालीदार दीवारें-
जिनके पीछे से
सारा संसार बंदी लगता है।
(हां! आकाश में उड़ता बाज भी)
न सियार का भय है,
न बिल्ली का।
मुर्गी भी साथ है।

हां!
कभी-कभी दहशत सी तो होती है-
जब कोई हाथ
(पता नहीं किसका)
अचानक
एक या कुछ को,
उठा ले जाता है-
न जाने कहां!

और फिर मिलते हैं
कुछ ही पल बाद,
ज़ायका बदलने को,
ताज़ा गोश्त के कुछ छिछड़े!

(जिनसे लिपटे लहू की गंध 
कुछ पहचानी सी लगती है)

नहीं जानता-
किसका है ये हाथ।
(जान कर करना भी क्या है?)
बस इतना पता है-
कि यही हाथ देता है
किनकी,बाजरा,पानी;
और स्वादिष्ट छिछड़े।

तभी तो!
ये हाथ
जब भी पिंजड़े में आया-
मैनें
इस पर न चोंच मारी,
न पंजे।
बस!
दड़बे के किसी कोने में
दुबक गया।

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