Monday, August 18, 2008

इक तरफ़ तो

इक तरफ़ तो दूर कश्ती से किनारा है बहुत;
नाख़ुदाओं का भी तूफ़ाँ को इशारा है बहुत।

प्यास बुझने की तुम्हें उम्मीद जिस सागर से है,
कितनी नदियां पी चुका है;फिर भी खारा है बहुत।

बादबानी कश्तियाँ खायें हवाओं का फ़रेब;
हमको अपने बाज़ुओं का ही सहारा है बहुत।

ख़ुद को वो समझे थे लेनिन और फ़रमाया किये,
चेतना-वंचित यहां का सर्वहारा है बहुत।

भीड़ में तो ख़ैर निष्ठुरता का अभिनय ही रहा;
सच कहूं! एकांत में, तुमको पुकारा है बहुत।

1 comment:

  1. "भीड़ में तो ख़ैर निष्ठुरता का अभिनय ही रहा;
    सच कहूं! एकांत में, तुमको पुकारा है बहुत। "
    बहुत खूब.
    बहुत उम्दा....

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