Saturday, September 13, 2008

राह में जब

राह में जब थकान को देखा,
देर तक आसमान को देखा।

मैनें टूटे हुए परों को नहीं ,
अपने मन की उड़ान को देखा।

वो मेरे घर कभी नहीं आया,
जिसने मेरे मकान को देखा।

जल गया रोम और नीरो ने
सिर्फ़ मुरली की तान को देखा।

तीर कातिल था; ये तो जाहिर है,
क्या किसी ने कमान को देखा?

3 comments:

  1. मैनें टूटे हुए परों को नहीं ,
    अपने मन की उड़ान को देखा।
    वो मेरे घर कभी नहीं आया,
    जिसने मेरे मकान को देखा।
    वाह..वा...बहुत ही खूबसूरत असर दार शेर हैं आप की इस ग़ज़ल में....बहुत अरसे बाद इतनी अच्छी ग़ज़ल पढने को मिली...शुक्रिया और दिल से दाद कबूल करें.
    नीरज

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  2. जल गया रोम और नीरो ने
    सिर्फ़ मुरली की तान को देखा।

    तीर कातिल था; ये तो जाहिर है,
    क्या किसी ने कमान को देखा?
    waah- waah achchi baat hai. aaoki any kavitayen v achchhi hain

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  3. मैनें टूटे हुए परों को नहीं ,
    अपने मन की उड़ान को देखा।

    वो मेरे घर कभी नहीं आया,
    जिसने मेरे मकान को देखा।

    बहुत ही सुन्दर। बधाई। किसी की दो पंक्तियाँ इसी तर्ज पर जोडना चाहता हूँ-
    मंजिल उसी को मिलती है, जिसके सपनों मे जान होती है।
    सिर्फ पंखों से कुछ नहीं होता, हौंसले से उडान होती है।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

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